Tuesday, August 19, 2008

यथार्थ

मन ही मन में
स्वर्ग से भी सुंदर, शायद
तथा कल्पना से भी परे
अनुपम किसी दृश्य को संजोये
देखो अधीर निगाहों की पीडा;
और उसे जीवंत रूप देने 
चित्रपट पर प्रयासरत
तुलिका से रंगों को मिलाती
उँगलियों की व्यस्त क्रीडा;
पुलकित है मन लेकर यह आस
अधूरी कृति जो पूरी होगी
रंगूंगा ऐसे की इन्द्रधनुष सी होगी
देगी सुन्दरता का अनुपम आभास.
 
शेष है अब कुछ अंतिम रेखाएं
रंगों से रिक्त बस ज़रा सा कोष
पूर्णता की ओ़र है समस्त आशाएं
थोडी ही दूर ह्रदय का संतोष;
पूर्ण तो हुई वह कृति
पर हाय कैसी यह विडम्बना
मन में थी कितनी सुंदर आकृति
और कितना विकृत यह है बना;
तो सुन! ऐ ज़िन्दगी के मुसाफिर
फूल ज्यों सब नहीं खिला करते
विश्वास भी हैं कुछ टूटा करते
बना लें  हम कितने ही नक्शे पर
अलग ही हैं कुछ ज़िन्दगी के रास्ते.
 
 
 

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