Wednesday, November 7, 2007

अनोखी दीवाली

दीनभर खेल कीरणों की होली
आदीत्य समा गया है मानो
पश्चीम बाला की झोली

गोधूली की ये बेला अलबेली
संध्या के मस्तक पर देखो ज्यों
सद्य अभीषीक्त कुंकुम रोली

आ रही है नीशी बाला मतवाली
हाथों में सजाये है देखो
सुंदर सपनों की थाली

नज़र कहीं ना लग जाये अली
कह रही है मानो
सल्लज गालों की लाली

की्ड़ा ऱत है तारक वृंदों की टोली
आसमां का आँगन सजा है
चंदा मामा के घर आज दीवाली

इन सब से अनजान दुनीया पगली
बेखबर पलकें बंद कीये है
जग का आँगन खाली-खाली...

1 comment:

V. Sridhar said...

Too good. You should write a book of poems